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डॉ० श्यामा प्रसाद मुख़र्जी एक व्यक्तित्व

राजनैतिक जीवन

डॉ मुख़र्जी के राजनैतिक जीवन की शुरुआत सन 1929 में हुई जब उन्होंने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर बंगाल विधान परिषद् में प्रवेश किया परन्तु जब कांग्रेस ने विधान परिषद् के बहिष्कार का निर्णय लिया तब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके पश्चात उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और चुने गए। सन 1941-42 में वह बंगाल राज्य के वित्त मंत्री रहे। सन 1937 से 1941 के बीच जब कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग की साझा सरकार थी तब वो विपक्ष के नेता थे और जब फजलुल हक़ के नेतृत्व में एक प्रगतिशील सरकार बनी तब उन्होंने वित्त मंत्री के तौर पर कार्य किया पर 1 साल बाद ही इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद धीरे-धीरे वो हिन्दुओं के हित की बात करने लगे और हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। सन 1944 में वो हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी रहे।

श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिकतावादी राजनीति का विरोध किया था। उस समय जिन्ना मुसलमानों के लिए बहुत ज्यादा रियायत की मांग कर रहे थे और पाकिस्तान आन्दोलन को भी हवा दे रहे थे। उन्होंने मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिकतावादी दुष्प्रचार से हिन्दुओं की रक्षा के लिए कार्य किया और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया।
डॉ॰ मुखर्जी धर्म के आधार पर विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उनके अनुसार विभाजन सम्बन्धी परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से उत्पन्न हुई थी। वो यह भी मानते थे कि सत्य यह है कि हम सब एक हैं और हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही भाषा और संस्कृति के हैं और एक ही हमारी विरासत है। इस मान्यता के साथ आरम्भ में उन्होंने देश के विभाजन का विरोध किया था पर 1946–47 के दंगों के बाद उनके इस सोच में परिवर्तन आया। उन्होंने महसूस किया कि मुस्लिम लीग के सरकार में मुस्लिम बाहुल्य राज्य में हिन्दुओं का रहना असुरक्षित होगा। इसी कारण सन 1946 में उन्होंने बंगाल विभाजन का समर्थन किया।

आजादी के बाद

स्वतंत्रता के बाद जब पंडित जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में सरकार बनी तब डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी गांधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए और उद्योग और आपूर्ति मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। भारत के संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के तौर पर उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया परन्तु उनके राष्ट्रवादी सोच के चलते कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ मतभेद बराबर बने रहे। अंततः सन 1950 में नेहरु-लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।

इसके बाद उन्होंने एक नए राजनैतिक दल की स्थापना की जो उस समय सबसे बडा विरोधी दल था। इस प्रकार अक्टूबर, 1951 में ‘भारतीय जनसंघ’ का उद्भव हुआ। सन 1952 के चुनाव में भारतीय जन संघ ने कुल तीन सीटें जीती, जिसमे एक उनकी खुद की सीट शामिल थी।

जम्मू कश्मीर और धारा 370  

डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर राज्य को एक अलग दर्जा दिए जाने के घोर विरोधी थे और चाहते थे की जम्मू कश्मीर को भी भारत के अन्य राज्यों की तरह माना जाये। वो जम्मू कश्मीर के अलग झंडे, अलग निशान और अलग संविधान के विरोधी थे। उनको ये बात भी नागवार लगती थी कि वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आज़म) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। उन्होंने देश की संसद में धारा-370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की।

अगस्त 1952 में उन्होंने बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर में प्रवेश का एलान किया और इसे पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट के जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

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